दिनकर के सवाल
माधव तुम अपराधी हो
राधेय के तुम घाती हो
अर्जुन की खातिर माधव, तुमने
राधेय की बलि चढ़ाई है
पार्थ-मोह में अंधे हो तुमने,
दिनकर की ज्वाला भड़काई है
क्या दोष था मेरे कर्ण का,
जो न दिया तुमने उसे अवसर समान?
साज़िश केवल कर्ण से क्यों?
दिनकर का क्यों कुछ मोल नहीं?
मेरी शपथ उठाते हो,
मेरे पुत्र पर बाण चलाते हो!
माना मेरा कोई मोल नहीं,
पर अनमोल थे कुंतीपुत्र सभी
वह भी तो कुंतीपुत्र ही था,
फिर भी तुमको प्रिय न था!
माना अर्जुन तुम्हें प्यारा था,
पर कर्ण ने क्या बिगाड़ा था ?
बिना दोष हरे राधेय के प्राण,
दिया अर्जुन को भी अपयश समान
था अर्जुन का नहीं दोष कोई,
वह लड़कर जीतना चाहता था
हे त्रिकालदर्शी माधव, तुमको पर
हार पार्थ की स्वीकार न थी
था संदेह तुम्हें अर्जुन की वीरता पर,
रच दिया इसलिए प्रपंच प्रबल
अगर नीति पर तुम चले होते,
न प्राण राधेय के हरे होते
समर से पहले राधेय के
न कवच-कुंडल छीने होते
छीना पहले कवच-बाण, फिर
छोड़ दिया रण में अनाथ समान
इतने में भी जी नहीं भरा,
तो दिया शकट धरती में धंसा
निहत्थे, नंगे सीने पर फिर
बेध दिए अर्जुन के बाण
धर्म-अधर्म, नीति-अनीति
ये शब्द हैं सब कूटनीति के
सच तो केवल वह होता है,
जो वीर रक्त से लिखते हैं
नीति-अनीति न समझाओ मुझे,
न धर्म-अधर्म की बात करो मुझसे
माधव! तुम तो बतलाओ बस
कर्ण की हत्या में धर्म था क्या ?
मित्रता के रिश्ते पर, माधव
क्यों रिश्ता रक्त का भारी है ?
मित्रता पाप यदि है तो क्यों
पार्थ से मोह कोई दोष नहीं ?
जहाँ ज्ञान गीता का दिया तुमने,
उसी धरा पर पाप किया तुमने
यदि मृत्यु दंड है मित्रता का,
तो मोह का क्यों कोई दंड नहीं ?
यह कैसा विधान लिखा तुमने,
जो मित्रता को पाप बताता है ?
मोहपाश में बंधे मायावी को
निश्छल, निष्कलंक दर्शाता है ?
सोचो, क्या होता उस क्षण को,
जो धरा पर मैं उतर आता ?
पिता के अश्रु ज्वाला से
सब भस्म वहीं पर हो जाता
न बचते पांडव और कौरव,
माधव को भी राख मैं कर देता
न जानते लोग महाभारत को,
न गीता का ज्ञान समझ पाते
ब्रह्मा का लिखा भी मिट जाता,
कुरुक्षेत्र में प्रलय ही हो जाता
राधेय के रक्त से सन कर जब
मिट्टी, कुरुक्षेत्र की धन्य हुई
उससे पहले, रणभूमि में तुमने
धर्म की चिता जलाई है
राधेय के रक्त से माधव तुमने
पांडवों की प्यास बुझाई है
थे बाण हथियार अर्जुन के, मगर
अर्जुन हथियार तुम्हारा था
अर्जुन के लिए तो कौरव था कर्ण
सिर्फ तुमको पता था, वो पांडव है
जब तुमने ठान लिया ही था,
तो प्राण कर्ण के जाना ही था
फिर, अर्जुन को विजयी बनाने को
साजिश को धर्म ठहराने को
रच दी लीला लीलने की
और रख दी नींव नये युग की
भाई ने भाई को मार दिया,
न बचा रिश्ते में रक्त जरा
माधव तुमको, ये न करना था,
द्वापर में कलयुग न जीना था
पिता के सामने बेबस बना,
पुत्र का वध न करना था
कर देते ओट बादल का जरा तो,
छा जाता अंधेरा, क्षण भर को वहाँ
फिर कर लेते मनमानी तुम,
मैं दोष अंधेरे पर मढ़ देता
न लगती कालिख कलंक की तुम्हें,
अंधेरे में तुम भी छुप जाते
लिखा जाता इतिहास, जब उजाले में,
तो नाम तुम्हारा मिट जाता
लेकिन इतिहास बदल न सका,
और नाम तुम्हारा अमिट रहा
माधव तुम अपराधी हो…
राधेय के तुम घाती हो।
✨ माधव का जवाब
न कर्ण से घात किया मैंने,
न अर्जुन ने प्राण हरे उसके
था प्रबल प्रतापी राधेय मेरा,
सूर्यवंशी तेज था रग-रग में
पर लिखा था जो, वो होना था,
सूर्यपुत्र के तेज को, ढलना था
अधर्म के साथ खड़े होने का,
भुगतान प्राणों से करना था
धरा पर अधर्म के साथ है जो,
वह बोझ है धरती पर भारी
अभयदान राधेय को यदि दे देता,
फिर धरती को कैसे माता कहता !
धरती से पाप मिटाने को,
हे दिनकर मैं तो हूँ विवश
फिर भी सद्मार्ग दिखाने को,
राधेय संग बात बढ़ाई थी
हाथ पकड़ कर राधेय के,
अपने घर की राह दिखाई थी
धर दिया था सिर पर पांडव मुकुट,
पर, मोल मुकुट का वह समझ न सका
दुर्योधन के प्रेम में अंधा हो,
पांडव मुकुट को बोझ कहा
न रख सका मान वह ममता का,
दिया कुंती को भी वचन, श्राप समान
भाई के रक्त के प्यासों को,
अपना रक्त बेमोल दिया
क्यों दानवीर ने दुर्योधन से,
राज अंग का दान लिया !
पाँच ग्राम पांडवों को जो दे न सके,
क्यों दे दिया उसने प्रदेश दान !
दान भाव में छुपे कुटिल भेद को,
क्यों समझ न सके दानवीर महान !
शकुनि के बिछाए चौसर में,
फँस गए कर्ण, अभिमन्यु समान
न समझ सके शकुनि के छल को,
दुर्योधन की चाल न पहचानी
वह कहता था राधेय को मित्र,
मगर, मित्र न उसे समझता था
राधेय के पराक्रमी भुजाओं को उसने,
मित्रता की मुद्रा से खरीदा था
हे दिनकर! क्या यह भी दोष मेरा,
जो मित्रपाश में बंधा था वो ?
मैंने तो सभी पांडवों के,
जीने की राह बनाई थी
पर कुंती को दिए वचन से,
राधेय ने दुविधा बढ़ाई थी
सभी पांडवपुत्र थे प्रिय मुझे,
पर करना था कठिन चयन मुझे
हे दिनकर! तुम ही बतलाओ,
धर्म स्थापना के इस महाभारत में
मैं किसके साथ खड़ा होऊं,
और किससे विलग मैं हो जाऊं ?
धर्म है क्या, और अधर्म क्या?
था राधेय को सब ज्ञात, मगर
धर्म पर प्रत्यंचा ताने वह,
अधर्म के साथ अटल रहा
हे दिनकर! आप तो ज्ञाता हो,
हर प्राणी के प्राणदाता हो
युग-युग से प्राणियों के सुख-दुख
के प्रत्यक्ष, प्रमाणिक दृष्टा हो
तुम पिता नहीं केवल राधेय के,
हर जीव में जीवन है तुमसे
शुरू होती हर कहानी तुमसे,
तुममें ही अंत हो जाता है
फिर भी बतलाता हूं तुझको — क्यों
किया था, न बादल का ओट ज़रा।
यदि ओट बादल का मैं कर देता,
तो अंधेरे में अधर्म विजयी होता
दिवा को रात्रि करने का,
दोष मेघराज के सिर होता
धर्म-अधर्म के महाभारत में,
अन्याय धर्म के साथ होता
राधेय के सीने पर, दिनकर —
फिर भी अर्जुन के बाण चलते
दिनकर के नहीं देखने भर से,
सृष्टि का लिखा नहीं मिट जाता
बादल के बीच में आने से,
महाभारत तो नहीं रुक जाता
अर्जुन के हाथों मुक्त होकर,
राधेय न दिनकर को प्राप्त होते
चलती सांसें अधर्म के साथ,
पर मुक्ति उसे न मिल पाती
तुम बेबस ताकते रहते बस,
मुक्ति की राह न सुझा पाते
कुछ परे नहीं है दृष्टि से तेरे,
जान के भी क्यों अनजान हो तुम ?
फिर भी, माधव यदि दोषी है —
तो चाहे जो, वह सज़ा दे दो
अगर यही लिखा है सृष्टि ने,
तो यह दोष भी अपने सिर लेंगे
हे दिनकर! मैं अपराधी हूं —
तेरे राधेय का, मैं घाती हूं…
……………
भूमिका — “माधव तुम अपराधी हो” कविता का सन्दर्भ
वेदव्यास रचित महाभारत, राष्ट्रकवि दिनकर द्वारा रचित रश्मिरथी, तथा अन्य कई साहित्यिक कृतियाँ महाभारत के पात्रों के बीच संवादों को प्रस्तुत करती हैं। पुस्तकालयों में ऐसी दर्जनों पुस्तकें उपलब्ध हैं जिनमें महाभारत के लगभग सभी प्रमुख पात्रों के आपसी संवादों को स्थान मिला है। लेकिन मैं जिस संवाद को ढूंढ रहा था, वह मुझे कहीं नहीं मिला। मैं भगवान सूर्य और भगवान श्रीकृष्ण के बीच संवाद को खोज रहा था। कई लोग कह सकते हैं कि भगवान सूर्य महाभारत के प्रत्यक्ष पात्र नहीं हैं, तो फिर उनका संवाद कैसे संभव है? लेकिन मुझे कर्ण की मृत्यु के संदर्भ में इस संवाद की आवश्यकता महसूस हुई। महाभारत में कर्ण की मृत्यु केवल कौरव पक्ष के एक योद्धा की मृत्यु नहीं थी। यह एक पिता (सूर्य) के सामने, उसके पुत्र (कर्ण) की हत्या भी थी। कुरुक्षेत्र के मैदान में जब अर्जुन, निहत्थे कर्ण के सीने पर बाणों की वर्षा कर रहे थे, तब पिता सूर्य सब कुछ बेबस होकर देख रहे थे। उनके मन में यह पीड़ा थी कि पुत्र की हत्या अन्यायपूर्ण थी, और यह युद्ध नीति के विरुद्ध की गई थी। सैकड़ों सवाल सूर्यदेव के मन में उठ रहे थे और वे इन सवालों का उत्तर भगवान श्रीकृष्ण से जानना चाहते थे। मैंने भगवान सूर्य (दिनकर) और भगवान श्रीकृष्ण (माधव) के बीच इन सवाल-जवाबों को संवाद के रूप में रचने का प्रयास किया है —अपनी कविता “माधव तुम अपराधी हो” में।