मैं रेत हूं

घुल जाऊं तो कांच हूं

टकराऊं तो चट्टान

रिसता रहूं तो समय हूं 

रिस जाऊ तो काल 

मैं रेत हूं 

समय बदल देता हूं

………….

नहर, नदी, झील, सागर से भी

नहीं बुझती प्यास मेरी

नदी की कोख से 

निकल कर भी प्यासा हूं 

मैं रेत हूं

मैं सिर्फ अश्क पीता हूं

…………

मुझमें तुम अपनी पहचान मत ढूंढ़ों

समय पर अपने पांवों के निशान मत ढूंढ़ो

बहुत दूर तक पांव भी चलते नहीं साथ में

मैं रेत हूं 

मुझ पर अपने सफर का मकां मत ढूंढ़ों

………….

रेत की आंखों में आज की चमक होती है

वो पीठ पर इतिहास का बोझ नहीं ढोते

आंधी, तुफान, बवंडर का डेरा है मुझमें

मैं रेत हूं

कभी मुट्ठी में मैं… कैद नहीं होता 

3 thoughts on “मैं रेत हूं”

  1. इक नाम क्या लिखा तेरा साहिल की रेत पर
    फिर उम्र भर हवा से मेरी दुश्मनी रही

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  2. समय जीवन का रेत है,झरते जाए झड़ झड़ झड़ झड़ फिर जीवन का शेष है…

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  3. सूक्ष्म कणों में निहित असीमित सामर्थ्य को सीमित शब्दों में समेटने की सुन्दर कोशिश।

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