
स्त्री विमर्श को केंद्र में रख कर बनी इस फिल्म में कहानी जिस तरह से शुरू होती है उससे कहानी का अंदाजा तो आप लगा लेंगे लेकिन फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी आपका अंदाजा गलत साबित होता चला जाएगा। कहानी में कोई बॉलीवुड मसाला नहीं है लेकिन स्वाद चोखा है ।
फिल्म का संदेश स्त्री को आत्मनिर्भर बनाने को लेकर है। लेकिन इस मूल संदेश को स्थापित करने के क्रम में फिल्म में स्त्री के संघर्ष के जिन आयामों को दिखाया गया है वह पुरूष प्रधान समाज के विद्रूप चेहरे को भी बेपर्दा करता है। रेलवे प्लेटफॉर्म पर चाय की दुकान चलाने वाली दादी मां का संधर्षशील आत्मनिर्भर चरित्र, स्त्री के फाइनेंसिएल इंडीपेंडेंस के महत्व को बताता है।
फिल्म के नायक स्त्रियों के जरिए स्त्रियों को अपना आसमान चुनने और अपने लिए जीने के अधिकार के संदेश को बखूबी प्रेषित किया गया है। फिल्म का अंत 70 के दशक में बनने वाली सुखांत फिल्मों के जैसी है लेकिन इसका संदेश आने वाले सौ वर्षो तक समाज को मिलता रहेगा। क्रिटिक की दृष्टि से यदि आप देखें तो फिल्म में आपको कुछ कमियां भी नजर आएंगी जो स्क्रिप्ट के कसाव और निर्देशन की खूबीयों में छुप सी गई है।
मसलन फिल्म की शुरूआत जिस घुंघट की समस्या के कारण हुई है फिल्म के अंत तक उसका कोई समाधान या निदान नहीं दिखाया गया है। ऐसा प्रतीत होता है मानो घुंघट स्त्री की किस्मत है जिससे उसका छुटकारा संभव नहीं चाहे वह कितनी भी सशक्त हो जाए समाज और परिवार का घुंघट चेहरे पर टिकाए रखना उसी की जिम्मेदारी है।
एक और कमी जो इस फिल्म में मुझे दिखी वह है बाल विवाह को स्वीकार करने की। फिल्म में बाल विवाह को यदि प्रमोट नहीं किया गया है तो उसे अस्वीकार भी नहीं किया गया है जो कि किया जाना चाहिए था।
12वीं पास जया की शादी उसकी मर्जी के खिलाफ होना फिल्म में दिखाया गया है। फूल की उम्र का स्पष्ट जिक्र तो नहीं है लेकिन जिस तरह एक सीन में फूल को जया के पैर छूते दिखाया गया है उससे लगता है कि निर्देशक कहानी में उसे जया से छोटी दिखाना चाहती है।
मतलब ये कि नबालिग की शादी को फिल्म में स्वीकार कर लिया गया है। स्त्री विमर्श पर बनी इस फिल्म में यदि इन दोनों विषयों को भी एड्रेस किया जाता तो फिल्म और भी मजबूत दिख सकती।
AI के जमाने में साइबर कैफे युग की पृष्ठभूमि पर फिल्म बनाने के लिए सोचना तभी संभव हो सकता है जब आपके पास विप्पलव गोस्वामी की एक मजबूत स्क्रिप्ट, विषय की गहरी समझ रखने वाले स्क्रीन प्ले और डायलॉग राइटर स्नेहा देसाइ और कहानी को जीने का जनून रखने वाले प्रोड्यूसर आमिर खान और डायरेक्टर किरण राव हो ।
किरण राव जो प्रोड्यूसर के साथ-साथ फिल्म की डायरेक्टर भी हैं इस मामले में लकी रहीं कि उन्हें अपनी फिल्म लापता लेडीज को बनाने के लिए वो टीम देर से ही सही लेकिन मिल गई। और लापता लेडीज को सफलता का पता मिल गया। लेकिन मेरी तरफ से फिल्म को 10 में से 6 नंबर ही मिलेंगे।
संतुलित विश्लेषण, सम्यक आलोचना।