कर्ण मौन हो चुके थे

थे आग्नेयास्त्र की चमक से, आकाश भी पिघल रहे,
वीरों के बाण-नाद से, थे वातावरण गूंज रहे।

जंगलों में पेड़-पौधे, खुद में थे दुबक रहे,
वायु में सैनिकों के, थे प्राण-पखेरू उड़ रहे।

अश्व-गज सब हतप्रभ थे, एक-दूजे को घूर रहे,
शकट अपनी चाल से, थे धरती को घात रहे।

वातावरण में वायु-संदेश, थे दसों दिशाओं में फैल रहे,
योजन दूर योद्धाओं के, परिजन थे बाट जोह रहे।

अंग प्रदेश के आकाश में, थे शोक-बादल घिर रहे,
व्याकुल हो राधा संग अधिरथ, थे आसमान को तक रहे।

आसमान से पुत्र कर्ण की, थे कुशल-क्षेम पूछ रहे,
बादलों के पार सूर्य, थे चकित हो सब देख रहे।

पांडवों का रथ रोक, जो वीर था पथ पर अड़ा,
वह सूर्य अस्त हो चला था — कर्ण मौन हो चले थे

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हत्यारिन सत्य

हत्यारे की माता को
क्यों वह अपनी माता कहे?

जीते-जी जिसे अस्वीकार किया,
मरने के बाद क्यों स्वीकार करे?

जब तक साँसें पुत्र की थीं,
मैं ही थी बस माता उसकी।

मूंदी जब आँखें उसने,
तो मैं माता उसकी नहीं रही!

कुंती ने तो बस जन्म दिया,
ममता ने मेरी उसे पाला है।

अब माता उसकी बदल रहे,
क्या कर्ण की भी इच्छा है इसमें?

हो पांडव कुल पहचान उसकी,
नहीं कर्ण की कभी ऐसी लालसा रही।

मरने के बाद तो कम से कम,
मेरे पुत्र के साथ न्याय करो।

पुत्र की चिता पर ममता को,
माधव, ऐसे न स्वाहा करो।

सत्य है, कुंती माता भी है,
और ममता की हत्यारिन भी।

माधव! मेरा दोष बताओ,
क्यों कर्ण अब मेरा पुत्र नहीं…?

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पुत्र राधेय

मैं पुत्र तुम्हारा ही हूँ, मां
कुंती नहीं है माता मेरी।

पांडव से नहीं कुछ लेना मुझको,
राजकुल में नहीं है सजना मुझको।

पांडव कहलाने में क्या गौरव है,
जो राधेय कहलाने में है नहीं?

मां! ममता नहीं केवल तुममें,
तुम ज्ञान की हो पहली सीढ़ी।

सारथी नहीं केवल पिता मेरे,
क्षत्रियों का बल है भुजाओं में।

पितामह भीष्म हैं साथ मेरे,
गुरु द्रोण का साया है सिर पर।

दुनिया को जो नीति सिखाते हैं,
वो विदुर भी तो हैं साथ मेरे।

जब कौरव श्रेष्ठ हैं मित्र मेरे,
तो मैं क्यों पांडव से कर जोड़ूं?

कुंति होगी जन्मदात्री मेरी,
पर न हुई कभी वह माता मेरी।

पिता सूर्य ने जो दी थी पहचान मुझे,
वह इन्द्र को दे दिया था — दान मैंने।

जो तेज था मुझमें, वह तेरा था,
जो बल था भुजा में — वह पिता ने दिया।

युद्ध-कौशल सब गुरु द्रोण से लिया,
और अंग-राज्य, मित्र दुर्योधन ने दिया।

दुनिया चाहे जो भी सोचे, पर
तुझ पर है वासुदेव का उपकार बड़ा।

ना सोचना, वासुदेव नहीं साथ तेरे,
उसने ही दिया “राधेय” नाम मुझे।

लिखा जाएगा इतिहास जब ममता का
तो माता राधा का नाम भी आएगा

कुंती होगी माता सिर्फ पांच पांडवों की
कर्ण, माता राधा का ही पुत्र कहलाएगा

इतिहास कुंती पुत्र नहीं,मुझे
राधेय कहकर बुलाएगा….

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✨ महाभारत काव्य श्रृंखला की तीन नई कविताओं की भूमिका

अंगराज के महल में उनकी माता राधा और पिता अधिरथ बेचैन दिख रहे थे। आसमान में जैसे-जैसे सूरज चढ़ता जा रहा था, उनकी बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी। किसी अनिष्ट के होने की आशंका मानो सच के करीब पहुँचती जा रही थी। रह-रह कर योजन दूर कुरुक्षेत्र के मैदान से उठ रही शस्त्रों की चमक आकाशीय बिजली की तरह अंग प्रदेश पर भी गिरने को तैयार लग रही थी। धनुषों की टंकार से वातावरण गुंजायमान हो रहा था। महाभारत का आज सत्रहवाँ दिन था, लेकिन इससे पहले कुरुक्षेत्र से उठती शस्त्रों की यह चमक और धनुषों की टंकार अंगवासियों के कानों तक नहीं पहुँची थी। आज अंग के साथ कुछ अनिष्ट होने वाला था, अंगराज कर्ण की आज कुरुक्षेत्र में अर्जुन के हाथों मृत्यु होने वाली थी, जिसकी पूर्व सूचना प्रकृति संकेतों के माध्यम से माता राधा तक पहुँचाने लगी थी। कुरुक्षेत्र में कौरवों के महान योद्धा, अंगराज कर्ण की अर्जुन के हाथों हुई मृत्यु पर सूर्य ने सवाल खड़े किए, जिसे मैंने महाभारत श्रृंखला की अपनी पहली कविता ‘माधव, तुम अपराधी हो‘ में लिखा है। भगवान सूर्य और कृष्ण के संवाद को इस लंबी कविता में स्थान दिया गया है। आज उसी श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए तीन कविताएँ आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। प्रथम भाग में माता राधा को मिल रहे अनिष्ट के संकेतों को रेखांकित किया गया है। दूसरे भाग में कर्ण की मृत्यु के पश्चात माता कुंती द्वारा कर्ण को पुत्र रूप में सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने के बाद, माता राधा के मन में उठ रहे प्रश्नों और शिकायतों को संवाद शैली में प्रस्तुत किया गया है। माता कुंती की स्वीकारोक्ति के बाद पांडवों ने कर्ण को बड़े भाई का सम्मान देते हुए उनका अंतिम संस्कार किया। छोटे भाई युधिष्ठिर ने उन्हें मुखाग्नि दी। इस घटना का उल्लेख महाभारत के स्त्रीपर्व में मिलता है। स्त्रीपर्व के अंतिम भाग जलप्रदानिका पर्व में इसका स्पष्ट वर्णन है। इस भाग में युद्ध के बाद की घटनाओं का विस्तार से विवरण है।  तीसरे और अंतिम भाग में माता राधा के मन में उठे सवालों का उत्तर स्वयं कर्ण, माता राधा के स्वप्न में आकर देते हैं। उस स्वप्न-संवाद को कविता के रूप में ढालने का प्रयास किया गया है। अपनी क्षमता की सीमाओं को लांघते हुए मैंने इस रचना को आप तक पहुँचाने का प्रयास किया है। आशा है यह आपको पसंद आई होगी।

🔹 प्रथम भाग – कर्ण मौन हो चुके थे, कर्ण की मृत्यु से पूर्व माता राधा की मनोदशा

🔹 द्वितीय भाग – हत्यारिन सत्य, माता राधा द्वारा माधव और इतिहास से उठाए गए प्रश्न

🔹 तृतीय एवं अंतिम भाग – पुत्र राधेय,स्वप्न में आकर पुत्र राधेय द्वारा मां की व्यथा का निवारण


2 thoughts on “कर्ण मौन हो चुके थे”

  1. महाभारत के अमर पात्रों में सर्वाधिक लोकप्रिय कर्ण के व्यक्तित्व को कविता में समेटने की आपकी कोशिश प्रशंसनीय है। शुभकामनाएं

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